Friday, November 27, 2009

इक बार उस से मिल लूँ मैं

बंजारा हूँ भटकने पे भरोसा है मेरा
जहाँ शाम बस वही बसेरा है मेरा |

मंजिल है न राही, ना कोई साथ में चलता
जो राह में मिलाता है , वहीँ दोस्त है मेरा |


साहिल समझ रहा है की में मंजिल को पा गया
किनारा नहीं , मंजिल मजधार है मेरा |


रुक जाये अगर नदिया कहीं तो उस पर चला जाऊं मैं
इस धार के उस पर कही प्यार है मेरा |


यह कविता मेरे मित्र विवेक और मेरा संयुक्त प्रयास है| इस रचना के साथ मैं इस ब्लॉग पर विवेक को आमंत्रित कर रहा हूँ और आशा करता हूँ की हम साथ बहुत सी नयी कृतियाँ प्रस्तुत करेंगे |

Thursday, October 29, 2009

बलिदान

आज क्लांत मन से डर कर
मधुशाला में जाना होगा
मधुबाला के आँचल में छिप
मधु रंग में मिल जाना होगा
जीवन संघर्ष विमुख हो
कुछ क्षण मुझको सो जाना होगा
रे भाग्य ! तेरी निष्ठुरता
किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया मुझे
जीवन के इस महा समर में
अस्त्रहीन कर दिया मुझे
मैं असहाय जीव तू निर्मम
हत्यारा बन बैठा है
मनु पुत्र के माथे पर
तेरा काल सर्प फन फैला है
पर जान मुझे न कायर तू
मैं पुरुषों का स्वामी हूँ
मैं जान चूका तेरा स्वाभाव
मैं जान गया क्या करना है
अब बिन प्रद्दुम्न नाद के
मुझको प्रत्युत्तर देना है
है सही कहा श्री गीता में
माधव ने जब चक्र धरा
भीम पुत्र के गर्जन से
जब भूमंडल ठहर गया
सीख मुझे मिल गयी समझ ले
कुछ बलिदान तो देना होगा
जीवन के इस धर्म युद्ध में
कुछ बलिदान तो करना होगा .....

Wednesday, October 28, 2009

अधूरा चाँद

चाँद आधा आधा सा
खडा था आसमां में
और
दूर बैठा एक तारा
अकेला
देख रहा था उसे
और
शायद सोच रहा था
की क्यूँ आज है ये
अधूरा सा
क्यूँ चांदनी इसकी है कम
उसने सोचा काश कि
वो चल पाता कुछ इक कदम
और
पूछ पाता चाँद से कि
क्या हुआ ऐसा उसे ....
कि चाँद जिसकी सब
दिया करते दुहाई
खूबसूरती के लिए
है हुआ कुछ और मध्धम
प्रत्येक क्षण .... प्रत्येक क्षण
सोच में डूबा हुआ
वो ज्यूँ ही मुड़ा
मैं जमीं से ताकता उसको दिखा
प्रश्न वे ही चाहता था
पूछना मैं भी कहीं
उस चाँद से जो आज डूबा हुआ था
शायद किसी की याद में
और भूल बैठा था
बिखेरना चांदनी अपनी पूरी ...

Thursday, October 8, 2009

नीरस

कितना नीरस हो चुका हूँ मैं
जिस अँधेरे को देख कभी
कविता की पंक्तियाँ सहज हे बनती थीं
उनमे बस अब काला रंग देख पाता हूँ

वो दूर की रौशनी जो मुझे
अपनी ओर खींच लेती थी
अब दूर खड़ी हो जाती है , भावः विहीन सी
भावः विहीन सी वो छोड़ देती है मुझे
मेरी कल्पना के सहारे
और ! मेरी कल्पना जो सन्नाटे में
नदियों का कल कल सुन लिया करती थी
अब बधिर हो चुकी है शायद
या नहीं पर
सिर्फ भौतिकता का शोर ही सुन पाती है अब

भावों से दूर तलक कोई सम्बन्ध न रहा मेरा
यह सोच मैं दुविधा में फस जाता हूँ
जीवन के सब रंग हैं मेरे पास
पर रंगों का रस खो चुका हूँ
हाँ ! मैं नीरस हो चुका

या शायद नहीं !!!!!

Wednesday, October 7, 2009

खोज रहा हुं

खोज रहा हुं मै ख़ुद को
वन उपवन और नील गगन मे
चाय के कप मे साप के बिल मे
मेरे मन मे ,
उसके मन मे
साँझ सुबह और रात के तन मे
खोज रहा हूँ मैख़ुद को

पर खोज रहा हूँ क्यों ख़ुद को
जब मै ख़ुद "ख़ुद " के पास हूँ
क्यों लगता है मै खोया हूँ
सपनो के एक जंगल मे
क्यों लगता है फसा हुआ हूँ छल से भावों के दंगल मे


सोच रहा हूँ हो जाऊँ मै भावों से एक बार विमुख
रस मे रह कर नीरस हूँ पानी मे रह कर प्यासा हूँ
हाथ पकड़ लूँ नीरसता का चख लूँ अब उसका भी मधु रस



पता नहीं मैं कहाँ सफल था
कभी सफल था भी या नहीं था
लोग तो मुझको घेरे हुए थे
क्या मै भी किसी से घिरा हुआ था
प्रश्न बहुत उठते हैं मन मे
लहरों से दब जाते हैं फिर उठते हैं क्षण भर को
फिर साहिल पर ढल जाते हैं


खोज सका न एक भी उत्तर
खड़ा हुआ मैं आज वहीँ पर
जहाँ खड़ा था बचपन मे
चौराहे पर जीवन के
सही मार्ग तब भी न पता था
अब भी हूँ अनभिज्ञ उसी से
पर जब हूँ मै खड़ा वहीँ पर
जान रहा हूँ एक सत्य अपरिचित एक मार्ग जो तब पकड़ा था
वो मार्ग नहीं था कभी उचित



हे ईश मुझे बल देना इतना ,
की मार्ग अगर फ़िर से ये ग़लत हो
तो पाऊं मै ख़ुद को खड़ा
इसी बीच चौराहे पर
पकड़ पाऊं मै सही मार्ग
इन मृत्युलोक की रहो पर
इन मृत्युलोक की रहो पर

कुछ बात कह दो

कुछ बात कह दो
कुछ खास ना सही, कुछ बकवास ही कह दो
काहे को मुह फुलाए बैठे हो
चांद की ना सही तारो की हे बात कह दो

खामोशी से डर लगता है मुझे ,
मेरे दिल की ना सुनो पर
अपने दिल की ही बात कह दो

बोल न सको किसी झिझक से
किसी डर से या
किसी और कारण से तो
झुका के नजरे धीरे से आंखों से आंखो की बात ही कह दो

मैं ये नहीं कहता कि
गुमनाम या बेआवाज है मेरी शायरी
शायराना अंदाज न सही
रूखी बातों मे ही वो बात कह दो

कूड़ा निस्तारण क्षेत्र का वर्णन

वो देखो तुम्हारे पूरे शहर का कूड़ा पड़ा है
अरे नहीं पूरे शहर का नहीं
बस उतना जितना मुनिसिपलिटी को दिखाई पड़ा है
वो देखो तुम्हारे पूरे शहर का कूड़ा पड़ा है.........

रंग बिरंगे रंगों मे
पन्नी कागज कचरे मे
विचलित बदबूदार पड़ा है
वो देखो तुम्हारे पूरे शहर का कूड़ा पड़ा है.........

कूडे के बीचों बीच इक
कूडे सा कूड़ेदान पड़ा है
और
सूअरों की नवदम्पति कापूरा इक परिवार पड़ा है
वो देखो तुम्हारे पूरे शहर का कूड़ा पड़ा है.....

गाय चर रही घास वही पर
छोटे बच्चे वहीं खेलते
ताश खेलते वहीं लफंगे
और वहीं गोबर का अम्बार पड़ा है
वो देखो तुम्हारे पूरे शहर का कूड़ा पड़ा है
......

मैं जब बैठा कभी मनन मे सोचूंगा इस बारे मे
तो पाउँगा ख़ुद को उलझा भावों के भवसागर मे
नहीं जनता
क्या ये कविता केवल कूड़ाघर का वर्णन है
या कहीं
किसी गलती से मैंने छेड़ दिया है
इस समाज को
जो चाहे जैसा दिखता हो पर
ये भी इक कूड़ाघर है

Thursday, October 1, 2009

" हाँ , मैं तुम्हे सोचने लगा हूँ "

कल रात चांदनी में बैठा ,
मैं जब हवाओं को हाथों से रोक रहा था,
दूर तक फैले अंधेरों में,
मैं कुछ ढूंढ रहा था |

सहसा तुम्हारा चेहरा दिखाई दिया
क्यूँ ? ये न पूछो |
पता नहीं कैसे तुम्हारी याद आई ||

फिर मैं अपने मन को कुछ समझाता ,
तुम्हारे स्पर्श को भ्रम समझ कर भूल जाता ,
कि तुम साथ नहीं हो अभी मेरे,
स्वयं को यही बता पाता,
भय मिश्रित ख़ुशी अपनी शायद ही मैं छुपा पाता,
उस से पहले ही एक शोर से मैं,
लौट आया
फिर अकेला उस रात में ||

बादलों से लड़ रहा था चाँद ज्यूँ
मैं भी लड़ रहा था मन से अपने
मान सकता था कभी जो न मैं
वो ही कहीं सच बन चूका था
सोच रहा था मैं तुम्हे ||


सोच रहा था मैं तुम्हे
और अब तुम ही बताओ
क्या ये प्यार का पहला कदम है ???
और अब तुम ही बताओ
क्या ये प्यार का पहला कदम है ???

Tuesday, April 28, 2009

इक दोस्त जरूरी है इस शहर में !!!

ये शहर अपना सा नहीं है
हर गली खाली सी है
बाजार के दिनों में
भीड़ में खडा सा हूँ बस
ज़िन्दगी की ज़ददो ज़हद में
फंसा हुआ सा
मायूस एक मुसकान होठों पर लिए फिरता हूँ
सबके हालात से वाकिफ
पर अपने से अनजान
खाली कमरे सा शहर है
हर कोना दूसरे से दूर
खिड़की पर एक चिडिया बैठती थी कभी
अब वो भी नहीं है
दरवाजे से बाहर दूर तक खाली सड़क है
गली के कोने पर कुछ आवारा लड़के खड़े होते थे हमेशा
जाने किस धुन में
जैसे सारी दुनिया उन्ही की हो
मेरा तो बस ये कमरा है
खाली सा
इसके चारो कोने मुझसे कहते है
इक दोस्त ज़रूरी है इस शहर में !!!