Wednesday, October 7, 2009

खोज रहा हुं

खोज रहा हुं मै ख़ुद को
वन उपवन और नील गगन मे
चाय के कप मे साप के बिल मे
मेरे मन मे ,
उसके मन मे
साँझ सुबह और रात के तन मे
खोज रहा हूँ मैख़ुद को

पर खोज रहा हूँ क्यों ख़ुद को
जब मै ख़ुद "ख़ुद " के पास हूँ
क्यों लगता है मै खोया हूँ
सपनो के एक जंगल मे
क्यों लगता है फसा हुआ हूँ छल से भावों के दंगल मे


सोच रहा हूँ हो जाऊँ मै भावों से एक बार विमुख
रस मे रह कर नीरस हूँ पानी मे रह कर प्यासा हूँ
हाथ पकड़ लूँ नीरसता का चख लूँ अब उसका भी मधु रस



पता नहीं मैं कहाँ सफल था
कभी सफल था भी या नहीं था
लोग तो मुझको घेरे हुए थे
क्या मै भी किसी से घिरा हुआ था
प्रश्न बहुत उठते हैं मन मे
लहरों से दब जाते हैं फिर उठते हैं क्षण भर को
फिर साहिल पर ढल जाते हैं


खोज सका न एक भी उत्तर
खड़ा हुआ मैं आज वहीँ पर
जहाँ खड़ा था बचपन मे
चौराहे पर जीवन के
सही मार्ग तब भी न पता था
अब भी हूँ अनभिज्ञ उसी से
पर जब हूँ मै खड़ा वहीँ पर
जान रहा हूँ एक सत्य अपरिचित एक मार्ग जो तब पकड़ा था
वो मार्ग नहीं था कभी उचित



हे ईश मुझे बल देना इतना ,
की मार्ग अगर फ़िर से ये ग़लत हो
तो पाऊं मै ख़ुद को खड़ा
इसी बीच चौराहे पर
पकड़ पाऊं मै सही मार्ग
इन मृत्युलोक की रहो पर
इन मृत्युलोक की रहो पर

1 comment:

  1. Paoge khudko khud ke andar...! Waheen base hain 'wo' bhee ham bhee...

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Thank you for taking time out to comment on this creation. Happy Reading . Please revisit.