Thursday, October 8, 2009

नीरस

कितना नीरस हो चुका हूँ मैं
जिस अँधेरे को देख कभी
कविता की पंक्तियाँ सहज हे बनती थीं
उनमे बस अब काला रंग देख पाता हूँ

वो दूर की रौशनी जो मुझे
अपनी ओर खींच लेती थी
अब दूर खड़ी हो जाती है , भावः विहीन सी
भावः विहीन सी वो छोड़ देती है मुझे
मेरी कल्पना के सहारे
और ! मेरी कल्पना जो सन्नाटे में
नदियों का कल कल सुन लिया करती थी
अब बधिर हो चुकी है शायद
या नहीं पर
सिर्फ भौतिकता का शोर ही सुन पाती है अब

भावों से दूर तलक कोई सम्बन्ध न रहा मेरा
यह सोच मैं दुविधा में फस जाता हूँ
जीवन के सब रंग हैं मेरे पास
पर रंगों का रस खो चुका हूँ
हाँ ! मैं नीरस हो चुका

या शायद नहीं !!!!!

2 comments:

  1. Sundar abhiwyaktee hai.. kewala 'kala' ke badle 'kaalaa' hona tha, haina?

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  2. Ji sahi kaha aapne.. Typo error :( Main ise sahi karta hun :)

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Thank you for taking time out to comment on this creation. Happy Reading . Please revisit.