कितना नीरस हो चुका हूँ मैं
जिस अँधेरे को देख कभी
कविता की पंक्तियाँ सहज हे बनती थीं
उनमे बस अब काला रंग देख पाता हूँ
वो दूर की रौशनी जो मुझे
अपनी ओर खींच लेती थी
अब दूर खड़ी हो जाती है , भावः विहीन सी
भावः विहीन सी वो छोड़ देती है मुझे
मेरी कल्पना के सहारे
और ! मेरी कल्पना जो सन्नाटे में
नदियों का कल कल सुन लिया करती थी
अब बधिर हो चुकी है शायद
या नहीं पर
सिर्फ भौतिकता का शोर ही सुन पाती है अब
भावों से दूर तलक कोई सम्बन्ध न रहा मेरा
यह सोच मैं दुविधा में फस जाता हूँ
जीवन के सब रंग हैं मेरे पास
पर रंगों का रस खो चुका हूँ
हाँ ! मैं नीरस हो चुका
या शायद नहीं !!!!!
Sundar abhiwyaktee hai.. kewala 'kala' ke badle 'kaalaa' hona tha, haina?
ReplyDeleteJi sahi kaha aapne.. Typo error :( Main ise sahi karta hun :)
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