Tuesday, January 28, 2014

मैं नासमझ ..

 मेरी खिड़की के बाहर का वो पेड़
उस  से ज्यादा मुझे गुजरते वक्त का एहसास कोई  नहीं दिलाता
नए पत्ते नयी डालियाँ
नयी कोपलें नयी बौरें
उनका वो नया हरा रंग
सब मुझे देख मुस्काते हैं,
"तुम तो बरसों पुराने हो गए हो "
यही कह कह चिढ़ाते हैं
मैं भी अकड़ कर मुह बनाता हूँ
"मैं पुराना ही सही अब तक नाबाद हूँ ,
हैसियत ही क्या है तुम्हारी ,
तुम्हारी तरह आता जाता नहीं "
पर वक्त  और मौसम के थपेड़े
जितने वो देखते हैं
उसका एक हिस्सा भी मेरे नसीब नहीं आता
न मैंने  धूप में जिंदगी बितायी
न कभी ठिठुरती ठंड में रात बितायी
फिर भी मैं नाबाद होने का घमंड करता हूँ
डाल पर लगे पत्ते मेरी इसी बेवकूफी पर
हस हस कर डाल से गिर  जाते हैं
और मैं नासमझ उसे पतझड़  समझ बैठता हूँ

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