Wednesday, June 6, 2012

जिंदा रहना मरने से कहीं अच्छा है शायद

जाने कब से ज़िन्दगी को कोस रहा हूँ


मौत की तारीफें कर रहा हूँ

ऊपर वाले की इस देन को

तोहफा समझूं या सजा

यही नहीं समझ आता

जब भी कहीं दुःख और परेशानी दिखती है

मन भर आता है

एक पल को भी सहा नहीं जाता

सोचता हूँ क्या जीना इतना जरुरी है

ये ज़िन्दगी अपना गुलाम बना कर राखी है सबको

कितनी बुराइयाँ कर चुका हूँ उसकी

पर मरने की दुआ मांगने की हिम्मत भी तो नहीं होती

जिंदा रहना मरने से कहीं अच्छा है शायद !

4 comments:

  1. कितनी बुराइयाँ कर चुका हूँ उसकी

    पर मरने की दुआ मांगने की हिम्मत भी तो नहीं होती

    जिंदा रहना मरने से कहीं अच्छा है शायद !
    Dua mangne se kya maut mil jayegi?

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  2. Pata nahin, Rishi. I can connect to your thoughts. Lovely.

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  3. jab maut ki dua bhi nai mang sakte to zinda rehna achcha kaise hua? :)

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  4. aise time pe aisa poem.....
    is poem ki lines me chupe hue life ki un sacchayiyo ko dekhiye.....
    shayad har kisi insaan ke mann me ek na ek bar aisa khayal zarur aata hain.... marne ka....
    bahut accha likha hain bhai.....
    ekdum straight forward and clear.....!!!!

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Thank you for taking time out to comment on this creation. Happy Reading . Please revisit.