इन्तेजार की हद बीती
हर गुजरते साये के संग
टकटकी लगी नज़रों पे अब
कुछ तो रहम कर
शर्मिंदा मैं क्यूँ होऊं सोचता हूँ
मैं पहुच गया तू ही नहीं आई
समंदर की लहरों पर तैरती राख सा हूँ
बरबस उछलता और गिरता
किनारे पर तुझसे मिलन की आस में
राख बन रेत पर फैला हुआ हूँ
राह देखता हूँ तेरी
कभी किसी शाम मुझ पर भी नंगे पैर चल ..
हर गुजरते साये के संग
टकटकी लगी नज़रों पे अब
कुछ तो रहम कर
शर्मिंदा मैं क्यूँ होऊं सोचता हूँ
मैं पहुच गया तू ही नहीं आई
समंदर की लहरों पर तैरती राख सा हूँ
बरबस उछलता और गिरता
किनारे पर तुझसे मिलन की आस में
राख बन रेत पर फैला हुआ हूँ
राह देखता हूँ तेरी
कभी किसी शाम मुझ पर भी नंगे पैर चल ..
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