Thursday, November 17, 2011

हर रात अकेला बैठा.. One of those many absurd thoughts..

हर रात अकेला बैठा किताब के पन्ने पलटता हूँ ,

आज भी कोई अलग नहीं

कोई आहट भी तो नहीं होती आँगन में ,

दरवाजे पर कोई कान लगाये सुन तो नहीं रहा है ,

झटपट पलट देखता हूँ ,

कहीं तुम तो नहीं ,

तम्हारी मुझे डरा देने की आदत कभी जाएगी नहीं,

पर अच्छा है ,

हाथ में कलम लिए पन्नों को घूर रहा हूँ कब से ,

अल्फाज़ मिल नहीं रहे हैं जैसे,

दो ही तो थीं जो मुझे जिन्दा रखे थीं ..

तुम और मेरी कवितायेँ..

दोनों एक साथ चली गयीं कहीं ..

आ जाओ बस आखिरी बार सही ,

एक छोटा सा चीटा बार बार दौड़ मेरी और आ रहा है ,

कहीं तुमने तो नहीं भेजा उसे ,

क्या बकवास !

पागल हो गया हूँ लगता है ,

आज तो गली में कुत्ते भी नहीं भोंक रहे हैं ,

उन्हें भी पता है

कोई फायदा नहीं,

ऐसे भी जग ही रहा हूँ मैं ,

क्या करूँ ; तुम्हारी याद सोने ही नहीं देती !!

5 comments:

  1. Uf! Bada dard bhara pada hai is sarvang sundar rachana me!

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  2. U have described one moment of wait and a life time of agony! Beautiful

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  3. i predict two things from the poem....
    1st... u hae very well described the scenario around ur house in ur lines... as i hv exeperienced it i can vouch for it... :)

    2nd..... ahem ahem... haan bhai... jise khoj rahe ho... wo insaan jald hi milega... i hope u got what i mean bro....

    p.s. personally i think its quite difficult to compose these kinds of poems.... nice job bhai.... :)

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  4. Bhaiya, Bahut mast likha hai.. and wid reference to Utki bhaiya, I hope its milegi and not milega .. ;)

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Thank you for taking time out to comment on this creation. Happy Reading . Please revisit.