मातृभूमि की कोख में बढ़ कर
रे अधम नीच ये क्या कर बैठा
जिस आँचल तेरा बचपन खेला
उसको ही मैला कर बैठा ??
दर्पण में कैसे देखेगा
रे मुर्ख कभी तू अपना ये मुख
जिस थाली में क्षुधा मिटाई
उसको ही छलनी कर बैठा ?
मान भूल गया अपना तू क्या
अरि को ही अपना कर बैठा
रे दुष्ट न बन वो कायर जो
राष्ट्र मान बौना कर बैठा ...
Gazab ke alfaaz!
ReplyDeletebhaiya this is one of ur best creations.... because the words are very familiar and simple .... anyone can understand the theme.... in one of ur older poem i had to read a para 2 times... :P:P
ReplyDeletebut this is just too good to read and might be too good to hear :)
keep it up.. :))
Thank You Kshama Ji, Thanks Utki :)
ReplyDeletetoo good :)
ReplyDeletevery well written. I liked the way the tone and the anger is expressed in the poem. :-)
ReplyDeleteO Man...!!! I really liked this one....I never knew this Rishi inside you....Gr8 to discover it...!!
ReplyDeleteWah wah !!
ReplyDeleteSimply loved it...!!
ReplyDeleteऋषिकान्त जी बड़ी मुस्किल में आपका नाम ढूंढ पाया मैं...आखिर इंजीनियर जो ठहरे ....
ReplyDeleteआपके भाव बहुत गहरे हैं
बस शिल्प को थोड़ा और तराशने कि जरूरत है भाषा और शब्दों के चयन पर थोड़ा सा और ध्यान दीजिये ...बिना मांगे सलाह देने के लिए माफ़ी चाहता हूँ.
द्विवेदी जी
ReplyDeleteधन्यवाद्.. आपकी सलाह मैं ध्यान में रखूँगा.. भाषा के सुधार और शब्दों के चयन पर ध्यान देने के लिए अगर कोई तरीका हो जो मैं अपना सकूँ तो जरुर बताएं .. क्यूँ की मैं बहुत समय से मैं हिंदी साहित्य से दूर रहा हूँ शायद काम की वजह से तो भाषा पर पकड़ कम हुई है .. काफी मौकों पर ऐसा लगता है की मैं अपने विचारों के लिए शब्द नहीं खोज पा रहा हूँ ..
मेरी और भी कृतियाँ देखिये और टिपण्णी कीजिये ..
Great work Bhaiya...pretty relevant in today's times
ReplyDeleteGreat vocab Bhaiya ...pretty relevant in today's times
ReplyDeletegood one......
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